इसमें कोई शक नहीं कि सुरेश शेट्टी का शुमार कांग्रेस के गंभीर नेताओं में होता रहा है। राजीव गाँधी जीवनदायी आरोग्य योजना, इमरजेंसी एम्बुलेंस सर्विस १०८ और सवास्थ्य सेवा से जुड़ी अनेक योजनाओं के शिल्पकार और अनेक मेडिकल कॉलेज को शुरू करवाने की पहल करने वाले सुरेश शेट्टी का महामारी वाली इस संकट की घड़ी में 'राजनैतिक रूप से घर बैठना' न तो राजनैतिक रूप से सही है न ही कांग्रेस के लिए। कांग्रेस के पास कोरोना महामारी के दौरान स्वास्थ्य विभाग की बारीक से बारीक जानकारी रखने वाले सुरेश शेट्टी को विधानपरिषद में भेजने का एक मौक़ा आया था मगर उसने गंवा दिया। न जाने किस आधार पर इस बार विधानपरिषद की उम्मीदवारी तय की गई। योग्य समय पर, योग्य व्यक्ति का चुनाव न कर पाना कांग्रेस की आदत बन गई है। कांग्रेस की यही ग़लतियां उसे भारी पड़ती हैं। राहुल गांधी, सोनिया गांधी के सलाहकारों को यह बात पता नहीं कब समझ में आएगी।
मैं कोई सुरेश शेट्टी का समर्थक नहीं हूँ। मैं बहैसियत पत्रकार अपनी बात रख रहा हूँ। कई मामलों में मेरा उनसे मतभेद हो सकता है और रहा भी होगा और शायद आगे भी हो। पत्रकार होने के साथ-साथ अंधेरी निवासी होने के कारण उनके मेरे संबंध काफ़ी पुराने हैं। पहली बार १९९९ में विधायक और बाद में मंत्री बनने से लेकर आज तक उनका काम नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला है। स्वास्थ्य विभाग को लेकर उनका डेडिकेशन ग़ज़ब का रहा है। लेकिन इस वक़्त स्वास्थ्य मंत्रालय में उनकी कमी खल रही है। हो सकता है राजेश टोपे बहुत अच्छा कर रहे हों या शायद बहुतों को पसंद न हों, लेकिन सुरेश शेट्टी का अनुभव आज महाराष्ट्र सरकार के लिए ज़रूर उपयोगी साबित होता।
कांग्रेस को समय रहते, समय पर योग्य उम्मीदवारों को मौक़ा देने की नीति अपनानी होगी। अभी भी कांग्रेस को अपने उन चुनिंदा नेताओं को किसी न किसी तरह जब भी मौक़ा मिले विधानपरिषद, राज्यसभा वगैरह में एडजस्ट करना चाहिए जिनके पास अनुभव है, परिपक्वता है, समर्पण है। शिष्टाचार और स्वास्थ्य मामलों के लिए सुरेश शेट्टी, अल्पसंख्यक और परप्रांतीय मामलों के लिए नसीम खान, संगठन, मराठी भाषी और कामगारों के नज़रिए से भाई जगताप, सीनेट के माध्यम से वर्षों तक विद्यार्थियों से जुड़े मामलों के लिए अमरजीत मन्हास, आर्थिक मामलों के विशषज्ञ अमीन पटेल जैसे अनेक नेता अब भी कांग्रेस में हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में आगे लाकर कांग्रेस अपना खोया वक़ार वापस पा सकती है। लेकिन क्या कांग्रेस हाईकमान के पास सूझबूझ भरा निर्णय ले सकने वाली इन्द्रियां अब भी काम कर रही हैं?